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साल 1988 में एक ऐसी फिल्म ने सिनेमाघरों में दस्तक दी थी, जिसमें मुंबई की सड़कों पर रहने वाले बच्चों की मुश्किलों को लोगों के सामने लाया गया था. इस फिल्म ने ऑस्कर अवॉर्ड जीता था. इस फिल्म में नजर आ चुका ये एक्टर आज रोजी-रोटी के लिए ऑटो चला रहा है.
नई दिल्ली. वो एक्टर जिसने कभी पूरी दुनिया को अपनी एक्टिंग से हैरान कर दिया, आज वही कलाकार दो वक्त की रोटी कमाने के लिए ऑटो चला रहा है. हम बात कर रहे हैं शफीक सैयद की, जिनकी फिल्म सलाम बॉम्बे को ऑस्कर तक का सफर मिला, लेकिन उनका अपना सफर थम गया.

साल 1988 में रिलीज हुई मीरा नायर की फिल्म ‘सलाम बॉम्बे’ आज भी सिनेमा प्रेमियों के दिलों में बसी है. इस फिल्म में 12 साल के शफीक ने कृष्णा उर्फ चायपाव नाम के किरदार में जान फूंक दी थी. उनके चेहरे के हाव-भाव, आंखों की मासूमियत और दर्द ने हर दर्शक को छू लिया था. इस शानदार परफॉर्मेंस के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था.

आज अफसोस की बात ये है कि फिल्म की चमक से उनकी जिंदगी कभी रौशन नहीं हो सकी. सलाम बॉम्बे के बाद उन्होंने केवल एक और फिल्म पठांग (1994) में काम किया और फिर इंडस्ट्री से गायब हो गए.

शुरुआत में ही संघर्षों से भरी थी जिंदगी. बैंगलोर के स्लम से निकलकर मुंबई की गलियों में वह काम की तलाश में भटके. मीरा नायर ने उन्हें फिल्म के लिए चुना, लेकिन शूटिंग के दौरान उन्हें सिर्फ 20 रुपये रोज और एक वड़ा लंच में दिया जाता था.

फिल्म हिट हुई, नाम मिला, पुरस्कार मिला, लेकिन आगे कोई काम नहीं मिला. न पढ़ाई पूरी हुई, न सपोर्ट सिस्टम मिला. धीरे-धीरे वह मायानगरी से वापस बैंगलोर लौट आए और ऑटो चलाकर गुजारा करने लगे.

कुछ समय तक उन्होंने कन्नड़ टीवी में कैमरा असिस्टेंट की नौकरी भी की, लेकिन अब उनका पूरा फोकस अपने परिवार और बच्चों पर है. वे अपनी मां, पत्नी और चार बच्चों के साथ एक छोटे से घर में रहते हैं.शफीक कहते हैं, ‘एक वक्त था जब कोई जिम्मेदारी नहीं थी. अब पूरा परिवार मुझ पर निर्भर है.” हालांकि फिल्मों से उनका रिश्ता टूट गया, लेकिन वो आज भी अपनी मेहनत और इमानदारी से जी रहे हैं.

एक्टर ने अपने जीवन पर आधारित 180 पन्नों की आत्मकथा ‘आफ्टर सलाम बॉम्बे’ लिखी है और उम्मीद करते हैं कि कोई इस पर फिल्म बनाए. वो गर्व से कहते हैं, “मेरी सलाम बॉम्बे, स्लमडॉग मिलियनेयर से ज्यादा ईमानदार है.’

<br />शफीक सैयद की कहानी हमें याद दिलाती है कि टैलेंट होना ही काफी नहीं होता. बॉलीवुड की चकाचौंध के पीछे कई अधूरी कहानियां भी छुपी होती हैं, जो वक्त के साथ गुमनामी में खो जाती हैं.