भारत में किए गए एक महत्वपूर्ण अध्ययन में यह पाया गया है कि जीन थेरेपी के माध्यम से ब्लड कैंसर, जैसे ल्यूकेमिया और लिम्फोमा से ग्रसित मरीजों के इलाज में 73 प्रतिशत सफलता दर प्राप्त हुई है। इस शोध को दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) और मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल सहित कई प्रमुख अस्पतालों में परीक्षण के बाद निष्कर्षों में शामिल किया गया है। इस अध्ययन के परिणाम “द लैंसेट हेमाटोलॉजी जर्नल” में प्रकाशित हुए हैं।
ऐसे बढ़ता की शरीर खी क्षमता
टी-कोशिकाएं कहे जाने वाले जीन थेरेपी में मरीज की प्रतिरक्षा कोशिकाओं को संशोधित किया जाता है ताकि वे कैंसर से लड़ सकें। इस प्रक्रिया में टी-कोशिकाओं के जीन को बदल कर उन्हें अधिक प्रभावी बनाया जाता है, जिससे शरीर में कैंसर से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है। इस थेरेपी का विशेष फायदा उन मरीजों को हुआ है, जिनमें बी-सेल ट्यूमर, जो एक प्रकार की श्वेत रक्त कोशिका होती है, बार-बार बढ़ने लगता है, और जिनके इलाज के बाकी विकल्प काम नहीं करते।
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शोध में खुलासा, एक नजर
शोधकर्ताओं ने बताया कि बी-कोशिकाएं शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली में अहम भूमिका निभाती हैं क्योंकि ये एंटीबॉडीज पैदा करके शरीर को संक्रमण से बचाती हैं। लेकिन जब ये कोशिकाएं कैंसर से संक्रमित हो जाती हैं और इलाज के बाद भी बढ़ने लगती हैं, तो अन्य उपचार असफल होने लगते हैं। ऐसे मामलों में जीन थेरेपी एक नई उम्मीद बन कर सामने आई है, जिससे मरीजों का जीवन बचाया जा सकता है। इस शोध के परिणाम से यह स्पष्ट है कि जीन थेरेपी ब्लड कैंसर के मरीजों के लिए एक प्रभावी और संभावित उपचार विकल्प हो सकती है।
लाखों ंमरीज को होगा फायदा
आईआईटी-बॉम्बे के प्रोफेसर राहुल पुरवार ने बताया कि कैंसर के लिए भारत की पहली जीन थेरेपी के सफल परिणाम ने लाखों मरीजों को एक नई उम्मीद दिखाई है। भारत में इम्यूनोएक्ट कंपनी के जरिये इसे उपलब्ध कराया जा रहा है। सामान्य टी-कोशिकाओं की तरह ये भी शरीर में लंबे समय तक बनी रहती हैं। इस अध्ययन के दौरान हमने 73 फीसदी मरीजों में यह इलाज सफल पाया। बीते 11 सालों से उनकी पूरी टीम इस शोध में जुटी हुई है। दवा डिजाइन और प्रयोगशाला में काम करने के बाद जानवरों पर अध्ययन हुआ और फिर भारत में क्लिनिकल ट्रायल शुरू हुए। उन्होंने बताया कि इंजेक्शन टैलिकैब्टेजीन ऑटोल्यूसेल अब भारत में मंजूर है और करीब 26 लाख रुपये में उपलब्ध है।
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2009 में शुरू हुआ प्रयास
दरअसल अध्ययन बताते हैं कि सीएआर-टी थेरेपी को लेकर दुनिया में पहला प्रयास अमेरिकी वैज्ञानिकों ने वर्ष 2009 से 2010 के बीच शुरू किया। हालांकि इसे सरकारी अनुमति 2018 में दी गई और उसी दौरान भारतीय शोधकर्ताओं ने इस पर अपना अध्ययन शुरू किया। भारत ने महज पांच साल के भीतर इस तकनीक को अस्पतालों तक उपलब्ध कराया है। अमेरिका और भारत के अलावा यह तकनीक स्पेन, जर्मनी और चीन के पास है। दरअसल यह तकनीक कैंसर मरीज के इम्यून सेल्स पर आधारित है