भारत के धर्मशाला में चल रही तिब्बत की निर्वासित सरकार सेंट्रल तिब्बतन एडमिनिस्ट्रेशन (सीटीए) के प्रधानमंत्री पेंपा शेरिंग ने खुलासा किया था कि वह पर्दे के पीछे से चीन की सरकार से बात कर रहे हैं और यह बातचीत पिछले एक साल से जारी है। हालांकि पेंपा शेरिंग ने यह भी कहा कि बातचीत की पहल उन्होंने नहीं, बल्कि चीन की तरफ से की गई थी। वहीं खास बात यह है कि यह बातचीत उस समय हो रही है, जब भारत-चीन में सीमा को लेकर 2020 में गलवान हिंसक संघर्ष के बाद से तनाव बना हुआ है और एलएसी पर दोनों देशों की सेनाओं का जमावड़ा लगा हुआ है। सरकार के सूत्रों का कहना है कि उन्हें इस बात की जानकारी है और वे अभी इसका आकलन करने में जुटे हैं। चीन-तिब्बत मामलों के जानकारों का कहना है कि मुद्दों के समाधान के लिए बातचीत होनी चाहिए, लेकिन इसमें भारत को भी शामिल करना चाहिए, आखिर भारत 90 हजार तिब्बतियों का घर है। वहीं इस चर्चा के बीच एक ‘सीक्रेट’ टेलीग्राम का भी जिक्र हुआ है, जिसे 1947 में ल्हासा मिशन ने नई दिल्ली भेजा था। जानकारों का कहना है कि तिब्बत की निर्वासित सरकार को इस पर भी अपना स्पष्टीकरण देना चाहिए।
दरअसल तिब्बत की निर्वासित सरकार के प्रधानमंत्री पेंपा शेरिंग ने खुलासा किया कि निर्वासित तिब्बती सरकार और चीन बैक-चैनल बातचीत कर रहे हैं। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि एक दशक के बाद दोनों पक्षों में बातचीत हो रही है। तिब्बती और चीन में 2002 से 2010 तक नौ दौर की चर्चा हुई थी, लेकिन उसका ठोस नतीजा नहीं निकला। अब पर्दे के पीछे की वार्ता का उद्देश्य समग्र वार्ता प्रक्रिया बहाल करना है, क्योंकि तिब्बती मुद्दा इसी तरह हल हो सकता है। इस बातचीत की पहल चीन की तरफ से की गई है। उन्होंने कहा, उनके वार्ताकार ‘बीजिंग में लोगों’ के साथ बातचीत कर रहे हैं, लेकिन किसी सहमति पर पहुंचने की तत्काल कोई उम्मीद नहीं है।
गांधीवादी विचारक, प्रख्यात समाजवादी एवं जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और राजनीतिक विश्लेषक डॉ. आनंद कुमार, जो ‘भारत-तिब्बत मैत्री संघ’ के जनरल सेक्रेटरी भी हैं, वह कहते हैं कि अगर तिब्बत और चीन के बीच वार्ता होती है, तो भारत-तिब्बत मैत्री संघ इसका स्वागत करता है। प्रोफेसर आनंद कुमार के मुताबिक तिब्बत-चीन के बीच वार्ता पहले भी हुई थी, लेकिन उस वक्त दलाई लामा ने जो शर्ते रखीं थी, जिनमें तिब्बती लोगों को वास्तविक स्वायत्तता की मांग की थी, उस पर शी जिनपिंग राजी नहीं हुए। उस समय वार्ता बंद होने के पीछे वजह तिब्बत में चीन विरोधी प्रदर्शन और बीजिंग के बौद्ध धर्म के प्रति कट्टर नजरिए को बताया गया था, जिसकी वजह से वार्ता किसी अंजाम तक नहीं पहुंच सकी। प्रोफेसर आनंद कुमार कहते हैं कि दलाई लामा तिब्बत में रह रहे लोगों की सुरक्षा को लेकर फिक्रमंद हैं। वे उनकी सुरक्षा, चिकित्सा और रोजगार की गारंटी चाहते हैं। वहीं संस्कृति के मुद्दे पर चीन का दखल बिल्कुल नहीं चाहते।
वार्ता में भारत सरकार भी हो शामिल
डॉ. आनंद कुमार कहते हैं कि चीन का रवैया रहस्यमय है। वह इन दिनों पूरी दुनिया में अलोकप्रिय हो गया है। तिब्बत के मुद्दे पर वह लगातार कठघरे में खड़ा रहता है। वहीं तिब्बत की निर्वासित सरकार के साथ वार्ता की पहल करके वह पूरी दुनिया के सामने अपनी इमेज ठीक करना चाहता है। वह कहते हैं कि अगर यह बातचीत होती है, तो इसमें भारत सरकार को भी शामिल करना चाहिए। आखिर भारत हमेशा तिब्बत के लोगों के साथ खड़ा रहा है, उनके लिए लड़ता रहा है। उसके हितों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। डॉ. आनंद के मुताबिक भारत तिब्बत के लोगों का भला चाहता है, लेकिन उसके योगदान की भी कद्र होनी चाहिए। अगर दोनों के बीच मध्यस्थता होती है, तो भारत को कोई आपत्ति नहीं है।
चीन का हिस्सा बनने के लिए तैयार हैं दलाई लामा
डॉ. आनंद कुमार का कहना है कि दलाई लामा पहले ही साफ कर चुके हैं कि वह चीन से पूरी तरह से आजादी नहीं मांग रहे हैं और सिर्फ चाहते हैं कि उनकी सरकार को तिब्बत में स्वायतत्ता मिले। वह बताते हैं कि कुछ साल पहले तिब्बत में जनमत संग्रह हुआ था, जिनमें 90 फीसदी तिब्बती दलाई लामा के साथ दिखे, वहीं युवा तिब्बत की आजादी के पक्ष में रहे। जिसके बाद दलाई लामा ने तिब्बत की पूर्ण आजादी की बात से पीछे हटते हुए, स्वायत्ता देने की मांग की। डॉ. आनंद के मुताबिक दलाई लामा लगातार भारत में अपने शुभचितंकों से मिलते हैं। दलाई लामा हमेशा कहते हैं कि ‘मैं भारतीय धरती का पुत्र हूं’ और ‘मैं भारतीय ज्ञान का दूत हूं। इसलिए हम भारतीय संस्कृति के करीब हैं लेकिन चीन के नहीं। अनौपचारिक बातचीत में भी वे चीन की बुराई नहीं करते, बल्कि वह चाहते हैं कि तिब्बत में शांति रहे, चीन अपनी दमनकारी नीतियों को बदले और तिब्बती लोगों को सुरक्षा दे। वह कहते हैं कि दलाई लामा ने पिछले साल कहा था कि वे चीन के साथ बातचीत के लिए हमेशा तैयार हैं और वे तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे हैं और चीन का हिस्सा बने रहेंगे।
बातचीत का दिखावा करता है चीन, पहले बंद करे तिब्बतियों पर अत्याचार
वहीं सरकार से जुड़े कुछ लोग इस बैक-चैनल बातचीत को दूसरे नजरिए से देख रहे हैं। सूत्रों का कहना है कि अगर चीन को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के सामने अपनी इमेज की इतनी चिंता है, तो उसे तिब्बत की निर्वासित सरकार को बैक-चैनल बातचीत की बजाए, खुले में न्योता देना चाहिए। वह कहते हैं कि चीन केवल दिखावा करता है, उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता। एक तरफ तो वह दलाई लामा की मौत की कामना करता है, और दूसरी तरफ बातचीत का ढोंग करता है। वह इस पर भी सवाल उठाते हैं कि यह वार्ता केवल दो पक्षों में ही क्यों हो रही है। आखिर भारत ने भी काफी कुछ झेला है। चीन की विस्तारवादी नीति का शिकार भारत भी रहा है। गलवान में क्या हुआ था, यह सबने देखा है। बार-बार चीन एलएसी से सटे भारतीय राज्यों को नए-नए नाम दे देता है, उन्हें अपना हिस्सा बताता है। वह कहते हैं कि अगर चीन को तिब्बत पर बात करनी है, तो वह पहले एलएसी पर चल रहे गतिरोध को खत्म करे, और जिसे वह साऊथ तिब्बत कहता है, उस पर अपना हक जताना बंद करे। सूत्रों का कहना है कि अगर चीन वास्तव में बातचीत के लिए संजीदा है, तो वह पहले तिब्बती मठों को तोड़ना बंद करे, तिब्बती लामाओं का सम्मान करे और तिब्बत के नागरिकों पर अत्याचारों को बंद करे। वहीं सूत्र तिब्बत की निर्वासित सरकार पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि चीन से पर्दे के पीछे बातचीत करने से पहले उन्हें अक्तूबर 1947 में ल्हासा मिशन के नई दिल्ली भेजे गए ‘सीक्रेट’ टेलीग्राम पर भी अपना रुख स्पष्ट करना चाहिए। हालांकि सूत्र इस ‘सीक्रेट’ टेलीग्राम के बारे में ज्यादा कुछ नहीं बताते, लेकिन इतना जरूर कहते हैं कि बस इतना समझ लीजिए कि यह टेलीग्राम भारत-तिब्बत और चीन, तीनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।