Samaveda: पहले लोग समस्त वेद का पठन पाठन मौखिक रूप से ही किया करते थे. कालांतर में जब लोगों में विसंगतियां उभरने लगी तब कृष्णद्वैपयान वेद व्यास ने हजारो मंत्रो मे फैले विस्तृत वेद रचनाओं को संग्रहित करके विषय के अनुसार चार भागो मे बांट दिया क्रमशः ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद.
वेद का विभाजन करके पैल, वैशम्पायन, जैमिनि और सुमन्तु नाम के अपने चार शिष्यों को इसका उपदेश किया. जैमिनि से सामवेद की परम्परा आरम्भ होती है. जैमिनि ने अपने पुत्र सुमन्तु, सुमन्तु ने अपने पुत्र सुन्वान् और सुन्वान् ने अपने पुत्र सुकर्मा को इसे पढ़ाया. इस प्रकार सामवेद की अध्ययन परम्परा चलती आ रही है. गद्य, पद्य और गीतिके स्वरूपगत भेद से प्रसिद्ध वेदत्रयी में गीतिभाग सामवेद कहलाता है.
सामतर्पण के अवसर पर साम गाने वाले जिन तेरह आचार्यों को तर्पण दिया जाता है, वे हैं-
(1) राणायन,
(2) सात्यमुग्रि-व्यास,
(3) भागुरि औलुण्डि,
(4) गौल्मुलवि,
(5) भानुमान,
(6) औपमन्यव,
(7) दाराल,
(8) गार्ग्य,
(9) सावर्णि,
(10) वार्षगणि,
(11) कुथुमि,
(12) शालिहोत्र और
(13) जैमिनि.
इनमें से आज राणायन, कुथुमि और जैमिनि आचार्यों के नाम से प्रसिद्ध राणायनीय, कौथुमीय और जैमिनीय-तीन शाखाएं प्राप्त होती हैं, जिनमें से राणायनीय शाखा दक्षिण में अधिक प्रचलित है. कौथुमीय विन्ध्याचल से उत्तर भारत में पाई जाती है. केरल में जैमिनीय शाखा का अध्ययन-अध्यापन अधिक कराया जाता है. पूरे भारत में ज्यादा से-ज्यादा कौथुमीय शाखा ही प्रचलित है.
बृहदारण्यकोपनिषद्में ‘सा चामश्चेति तत्साम्नः सामत्वम्’ (1.3.22) वाक्य से ‘सा’ का अर्थ ऋक् और ‘अम’ का अर्थ गान बताकर सामका व्युत्पादन किया गया है. इससे बोध होता है कि इन दोनों को ही ‘साम’ शब्द से जानना चाहिए. इसलिये ऋचाओं और गानों को मिलाकर सामवेद का मन्त्रभाग पूर्ण हो जाता है. मन्त्रभाग को संहिता भी कहते हैं. इसी कारण सामवेद संहिता लिखी हुई पाई जाती है.
सामवेदीय ऋचाओं में विविध स्वरों एवं आलापों से प्रकृतिगान और ऊह तथा ऊह्य गान गाए गये हैं. प्रकृतिगान में ग्रामगेयगान और आरण्यक गान है. प्रथम गान में आग्नेय, ऐन्द्र और पावमान-इन तीन पर्वों में प्रमुख रूप से क्रमशः अग्नि, इन्द्र और सोम के स्तुतिपरक मंत्र पढ़े गए हैं. आरण्यकर्मे अर्क, द्वन्द्व, व्रत, शुक्रिय और महानाम्नी नामक पा च पर्व का संगम रहा है. सूर्य नमस्कार के रूप में प्रत्येक रविवार को शुक्रिय पर्व-पाठ करने का सम्प्रदाय सामवेदीयों का है.
जंगलों में गाए जाने वाले सामों का पाठ होने से इस गानभाग को आरण्यक कहा गया है. ग्रामगेय गान और आरण्यक-गान के आधार पर क्रमशः ऊहगान और ऊह्यगान प्रभावित हैं. विशेष करके सोम यागों में गाए जाने वाले स्तोत्र ऊह और ऊह्यगान में मिलते हैं. इन दोनों में दशरात्र, संवत्सर, एकाह, अहीन, सत्र, प्रायश्चित्त और क्षुद्रसंज्ञक सात पर्वों में ताण्ड्य ब्राह्मण द्वारा निर्धारित क्रम के आधार पर स्तोत्रों का पाठ है. जैसे कि ताण्ड्य ब्राह्मण अपने चतुर्थ अध्याय से ही यागका निरूपण करता है.
ब्राह्मणभाग:–
कर्मों में मंत्र भाग का विनियोजन ब्राह्मण करते हैं. सामान्यतया सामवेद के आठ ब्राह्मण देवताध्याय ब्राह्मण के सायण-भाष्य के मंगलाचरण-श्लोक में गिने गए हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं-
(1) प्रौढ (ताण्ड्य) ब्राह्मण,
(2) षड्विंशब्राह्मण,
(3) सामविधानब्राह्मण,
(4) आर्षेयब्राह्मण,
(5) देवताध्याय-ब्राह्मण,
(6) छान्दोग्योपनिषद्-ब्राह्मण,
(7) संहितोपनिषद्-ब्राह्मण और
(8) वंशब्राह्मण।
ताण्ड्य-ब्राह्मण का अध्यायसंख्या के आधार पर पञ्चविंश नाम पड़ा है तो सबसे बड़ा होने से महाब्राह्मण भी कहा जाता है. इन ब्राह्मणों के अतिरिक्त जैमिनीय शाखा के जैमिनीय ब्राह्मण, जैमिनीयोपनिषद् और जैमिनीयार्षेयब्राह्मण भी देखने में आते हैं, जिससे ब्राह्मण का नाम भी षड्विंश रखा गया. संसार में स्वाभाविक रूप से घटने वाली घटनाओं से भिन्न अनेक अद्भुत घटनाएं भी होती हैं. उससे निपटने के लिए स्मार्त-यागों और सामों का विधान इस अध्याय में किया गया है.
जैसे मकान पर वज्रपात होना, प्रशासनिक अधिकारी से विवाद बढ़ना तथा आकस्मिक रूप में हाथियों और घोड़ों की मृत्यु होना लोगों के लिए अनिष्ट सूचक हैं. आर्षेयब्राह्मण सामों के छः अध्यायों में विभाजित नाम से सम्बद्ध ऋषियों का प्रतिपादन करता है. मन्त्र द्रष्टा आर्षेय पड़ा है. चार खण्डों में विभक्त देवताध्यायन्ब्राह्मण निधन के आधार पर सामों के देवताओं को बतलाता है.
दस प्रपाठक से पूर्ण होने वाले छान्दोग्योपनिषद्- ब्राह्मण के प्रथम दो प्रपाठकों में विवाहादि-कर्म से सम्बद्ध मन्त्रों का विधान है. अवशिष्ट आठ प्रपाठक उपनिषद् है. इस उपनिषद्-खण्ड में साम के सारतत्त्व को स्वर कहा गया है. जैसे शालावत्य और दाल्भ्य के संवाद में साम की गति को ‘स्वर होवाच’ कहकर स्वरों को ही साम का सर्वस्व माना गया है.
देखा जाता है कि बृहद् रथन्तर आदि साम आर्षेय से सम्बद्ध न होकर स्वरों से ही प्रसिद्ध हैं अर्थात् ये साम क्रुष्ट प्रथमादि स्वरों की ही अभिव्यक्ति करते हैं. इसी उपनिषद् (2.22.2)- में उद्गाताद्वारा गाए गए एक स्तोत्र का देवों में अमृत दिलाने, पशुओं में आहार तय करने, यजमान को स्वर्ग दिलाने, स्वयं स्तोता को अन्नोत्पादन उद्देश्य रखते हुए गान करने का विधान बतलाया गया है.
वेदांग :–
वेदांग मे कल्पशास्त्र 4 वर्गो मे बंटा है. गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र और शुल्बसूत्र. दो श्रौतसुत्त हैं- द्राह्मायण और लाट्यायन. वैसे ही खादिर और गोभिल दो गृह्यसूत्र मिलते हैं. इस तरह देश-प्रयोग के भेद से श्रौतसुत्त और गृह्यसूत्र के दो भेद किए गए हैं.
अर्थात् जहां दक्षिण के सामवेदी अपने श्रौत और स्मार्त क्रमश: द्राह्मायन श्रौतसुत्त और खदिर गृह्यसूत्र से कर्म सम्पन्न करते हैं तो वही कर्म उत्तर के सामवेदी लात्यायन श्रौतसुत्त से.
सामवेद की उच्चारण-प्रक्रिया को बतलाने वाली प्रमुख तीन शिक्षाएं है- नारदीयशिक्षा, गौतमशिक्षा और लोमशशिक्षा.
इस वेद का आरण्यक ‘तवलकार’ है. इसे ब्राह्मण भी कहा जाता है. चार वेदाङ्गों में से कल्पशास्त्र चार प्रकारों में बंटा है- अध्यायों और अनेक अनुवा को से इसकी ग्रन्थाकृति बनी है. इसी प्रकार केन और छान्दोग्योपनिषद् इस वेद के उपनिषद् हैं. अपनी शाखा के आधार पर केन को तवलकार भी कहा जाता है. आठ प्रपाठक के आदिम पांच प्रपाठ कों में उद्गीथ (ॐकार) और सामों का सूक्ष्म विवेचन करने वाला छान्दोग्योपनिषद् अन्त के तीन प्रपाठकों में अध्यात्मविद्या बतलाता है. सामवेदीय महावाक्य ‘तत्त्वमसि’का निरूपण इस मे किया गया है.
सामवेद से ही हुई है संगीतशास्त्र की उत्पत्ति
सामवेद से ही संगीतशास्त्र का प्रादुर्भाव माना जाता है. ‘सामवेदादिदं गीतं संजग्राह पितामहः’ (2.25) संग्रह किया’ ऐसा कहकर संगीतरत्नाकर के रचयिता शार्ङ्गदेव ने स्पष्ट शब्दों में संगीत का उपजीव्य ग्रन्थ सामवेद को माना है. भरत मुनि ने भी इसी बात को सिद्ध करते हुए कहा कि ‘सामभ्यो गीतमेव व’ अर्थात् ‘सामवेद से ही गीत की उत्पत्ति हुई है.’
इसी प्रकार विपुल सामवेदीय वाङ्मय को श्रीकृष्ण ने ‘वेदानां सामवेदोऽस्मि’ (गीता 10.22) अर्थात् ‘वेदों में मैं सामवेद हूं’ कहकर इसका महत्व बढ़ा दिया है. वेणु के अनुरागी, गुणग्राही और ब्राह्मणप्रिय होने के कारण भगवान् कृष्ण स्वयं अपनी विभूति सामवेद को माने हैं. देखने में आता है कि सामवेद में पद्मप्रधान ऋग्वेदीय मंत्रों, गद्यप्रधान यजुर्मंत्रों और गीत्यात्मक मंत्रों का संगम है.
इसलिए समस्त त्रयीरूप वेदों का एक ही सामवेद से ग्रहण हो जाने के कारण इसकी अतिशय महत्ता और व्यापकता के कारण भगवान श्रीकृष्ण ने अपने को साक्षात् सामवेद बताया है.
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