बिलासपुर/छत्तीसगढ़। दिन भर पृथ्वी, पेड़, नदी, नाले, शुद्ध हवा और झरनों को बर्बाद कर देने वाले धुएँ, परिवहन और फेक्टरियों के चित्र बनाते हैं। इन्हीं सबको लेकर भाषणबाज़ी होती हैं, शपथ ली जाती हैं, रैली निकाली जाती हैं और बस सुबह से शाम हो जाती हैं। मना लिया हमने पर्यावरण दिवस l 5 जून को पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता हैं। पृथ्वी पर जीवन इस पर्यावरण की वज़ह से हैं जिसे हम एक दिवस समर्पित करके पृथ्वी और पर्यावरण के प्रति अपने कर्तव्यों की इति श्री समझ लेते हैं। विडंबना ही कहिए कि इतनी कसमें खाने और नाटक करने के बाद हम धुआँ उड़ाते अपनी गाड़ियों में बैठ कर घर आते हैं और एसी चला कर सो जाते हैं। ये आचरण, ये व्यवहार पर्यावरण का उपहास हैं। ये बिलकुल ऐसा हैं कि जैसे कोई हमसे कहें कि तुम मेरी जिंदगी हो और शाम को अपने स्वाद के लिए वो हमें मार कर खा जाए।
लगातार पिघलती हिमानियाँ, पृथ्वी का लगातार बढ़ता तापमान, साल दर साल बढ़ रहा जल स्तर, समुद्र में उठती सुनामियाँ, इंसान में बढ़ती मानसिक विकलांगता, शब्दों और कागजों पर किए गए समझौतों में दम तोड़ती कर्तव्य भावना अपने स्तर पर मानव को निरंतर सन्देश दे रही हैं कि संभल जाओ और मुझे (पृथ्वी) को भी संभाल लो। मानव सभ्यता बधिर की भांति इस संदेशों को अनदेखा करके अलग-अलग स्तरों युद्ध अभ्यासों और कहीं कहीं वास्तविक युद्धों के शोर में अपने विकास और जीत के मायने खोज रही हैं। पर्यावरण संरक्षण के नाम पर प्लास्टिक की बोतलों और गमलों में उगाए गए जंगल किस सीमा तक पर्यावरण का संरक्षण करेंगे यह अपने आप में एक बड़ा विचारणीय बिंदु हैं।
शायद हमें यानि पूरी मानव सभ्यता को यह समझने की जरूरत हैं कि बिना मानव के आंतरिक विचारों और व्यवहार में परिवर्तन किए पृथ्वी के भौतिक पर्यावरण को बेहतर (स्वच्छ व प्रदुषण रहित) बनाना संभव नहीं हैं। हमें खुद में व अपने बच्चों और युवाओं में ऐसी व्यवहारिक आदतों का निर्माण एवं विकास करना होगा जो हमारी पृथ्वी के पर्यावरण से सापेक्षता रखती हो।
प्रकृति को पूजनीय मानने वाली पुरातन मान्यताओं एवं प्रथाओं को अंधविश्वास का नाम देकर आधुनिक सभ्यता अपने प्रकृति विरोधी कार्यों को तार्किक नहीं ठहरा सकती। आज आधुनिक सभ्यता गर्मी के मौसम (मई के माह में) रेगिस्तानी क्षेत्रों में 50⁰ सेल्सियस से ऊपर जा रहे तापमान के साथ जल रही हैं। आज समुद्र तटीय क्षेत्रों में निवासित आधुनिक सभ्यता जल प्रलय के परिघटनाओं से जूझ रही हैं, अलास्का और उत्तरी रूस जैसे क्षेत्रों में आधुनिक सभ्यता हिमयुग में जाने का खतरा झेल रही हैं, ऐसी अनंत घटनाएँ हैं जो समय समय पर अपने चरम स्वरुप में प्रकट होकर मानव मात्र के मन मस्तिष्क में बार-बार कोलाहल पैदा करती हैं। ये कोलाहल हमारा आधुनिक सभ्यता का स्थायी भय न बन जाए इसलिए यह अनिवार्य हैं कि हम समय रहते चेत जाए। हम अपने पूर्वजों के ज्ञान को पुनर्जीवित करे ये आज के समय की दरकार हैं। आओ हम अपने प्रयासों को कुछ इस तरह सार्थक बनाने के प्रयास करे।
हम गमलों में नहीं जमीन में पेड़ लगाने की पहल करे, केवल पेड़ न लगाए बल्कि उनके स्वयं जमीन से जुड़ कर पोषण शुरू करने की अवधि तक उनकी देखभाल करे, उन्हें सूखने न दे। हमने अक्सर देखा हैं कि हम पेड़ लगाकर भूल जाते हैं और प्राय: वो नवजात पौधा अनेकानेक कारणों से मुरझा कर सूख जाता हैं और उसके साथ हमारे मन व कार्य के संकल्प भी सूख जाते हैं।
हम बच्चों और युवाओं में इस तरह की आदतों का विकास करे कि वो स्वयं को प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ महसूस करे। जैसे मौसम विशेष में पक्षियों व जानवरों के लिए पानी व खाने की व्यवस्था करने की आदत का विकास, बच्चों को स्वयं चीज़ें उगाने की आदत जैसे – थोड़ी सी जमीन तैयार करना (बच्चों के स्तर पर गमलों में) उसमें नींबू, टमाटर, मिर्च, धनिया, पुदीना जैसी चीज़ों को उगाना। इससे बालकों में स्वयं निर्माता होने के भाव का विकास होगा और वह उसकी रक्षा और विकास के लिए स्वयं तत्पर होंगे।
हमें खुद भी प्रकृति के सानिध्य में रहने की आदत डालनी होगी क्योंकि हमारे बच्चे, हमारे युवा हमें देखकर, हमसे बातचीत करके सीखते हैं। यह सीख उनके भावी जीवन का आधार बनती हैं। तो आइए संकल्प करे कि पर्यावरण दिवस केवल फोटो, कागजों और नारों में ही न सिमट कर रहे वरन हम उसे जीवंत रूप में मनाए।
‘ये धुआँ, ये तपन, और काला-काला सा गगन, शोर के ज़ोर से, भंग, हो रहा अमन। आओ के तेरे साथ की जरूरतें हैं बढ़ रही, जिससे कि जीवित रहे जिंदगी का चमन, जिंदगी का चमन।।”