Shani Jayanti 2024: ज्येष्ठ मास की अमावस्या (Jyeshtha Amavasya) को शनि जयंती मनाई जाती है. भृगु संहिता (Bhrigu Samhita) के अनुसार, शनि महान दृढ़ता शक्ति के अधिकारी हैं, इसलिए कुण्डली (Horoscope) में शनि, जिन 2 स्थानों के स्वामी हैं और जहां विराजमान हैं तथा जिन 2 स्थानों को देखते हैं, उन स्थानों में दृढ़ता शक्ति से काम करता है. चलिए अब शनि देव के जन्म का वृतांत देखते हैं.
शनि देव की जन्म कथा (Shani Dev Birth Story):–
वराह पुराण (Varaha Purana) अध्याय क्रमांक 20 के अनुसार, मरीचि मुनि ब्रह्माजी के पुत्र हैं. स्वयं ब्रह्माजी ने ही (अपने पुत्रों के रूप में) चौदह स्वरूप धारण किए थे. उनमें मरीचि सबसे बड़े थे. उन मरीचि के पुत्र महान तेजस्वी कश्यप मुनि हुए. ये प्रजापतियों में सबसे अधिक श्रीसम्पन्न थे, क्योंकि ये देवताओं के पिता थे. बारहों आदित्य उन्हीं के पुत्र हैं. ये बारह आदित्य भगवान नारायण (Narayan) के ही तेजोरूप हैं-ऐसा कहा गया है. इस प्रकार ये बारह आदित्य बारह मास के प्रतीक हैं और संवत्सर भगवान श्रीहरि (Lord Vishnu) का रूप हैं.
द्वादश आदित्यों में मार्तण्ड महान प्रतापशाली हैं. देवशिल्पी विश्वकर्मा (Lord Vishwakarma) ने अपनी परम तेजोमयी कन्या संज्ञा का विवाह मार्तण्ड से कर दिया. उससे इनकी दो संतानें उत्पन्न हुईं, जिनमें पुत्र का नाम यम और कन्या का नाम यमुना हुआ. संज्ञा से सूर्य (Surya) का तेज सहा नहीं जा रहा था, अतः उसने मन के समान गतिवाली वडबा (घोड़ी) का रूप धारण किया और अपनी छाया को सूर्य के घर में स्थापित कर उत्तर-कुरु में चली गयी. अब उसकी प्रतिच्छाया वहां रहने लगी और सूर्यदेव की उससे भी दो संतानें हुईं, जिनमें पुत्र शनि नाम से विख्यात हुआ और कन्या तपती नाम से प्रसिद्ध हुई.
जब छाया संतानों के प्रति विषमता का व्यवहार करने लगी तो सूर्यदेव की आंखें क्रोध से लाल हो उठीं. उन्होंने छाया से कहा- “तुम्हारा अपनी इन संतानों के प्रति विषमता का व्यवहार करना उचित नहीं है.” सूर्य के ऐसा कहने पर भी जब छाया के विचार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ तो एक दिन अत्यन्त दुखित होकर यमराज ने अपने पिता से कहा- “यह हमलोगों की माता नहीं है, क्योंकि अपनी दोनों संतानों-शनि और तपती से तो यह प्यार करती है और हम लोगों के प्रति शत्रुता रखती है. यह विमाता के समान हमलोगों से विषमतापूर्ण व्यवहार करती है.”
उस समय यम की ऐसी बात सुनकर छाया क्रोध से भर उठी और उसने यम को शाप दे दिया- “तुम शीघ्र ही प्रेतों के राजा हो जाओगे.” जब छाया के ऐसे कटु वचन सूर्य ने सुने तो पुत्र के कल्याण की कामना से वे बोल उठे- “बेटा! चिन्ता की कोई बात नहीं- तुम वहां मनुष्यों के धर्म और पाप का निर्णय करोगे और लोकपाल के रूपमें स्वर्ग में भी तुम्हारी प्रतिष्ठा होगी.” उस अवसर पर छाया के प्रति क्रोध हो जाने के कारण सूर्य का चित्त चंचल हो उठा था. अतः उन्होंने बदले में शनि को शाप दे डाला “पुत्र! माता के दोष से तुम्हारी दृष्टि में भी क्रूरता भरी रहेगी”. उसी क्षण के वक्र दृष्टि हो गई. इस पर कल्प भेद मे एक और कथा आती है गणेश पुराण की.
क्यों शनि की वक्र दृष्टि किसी का भी विनाश कर सकती हैं?
गणेश पुराण (Ganesh Purana) (तृतीय खंड अष्टम अध्याय) अनुसार, शनि ने यह कथा माता पार्वती को सुनाई थी. शनि बोले: ‘मातेश्वरि! मैं आरम्भ से ही भगवान श्रीकृष्ण का भक्त रहा हूं और मेरा मन सदैव उन्हीं भगवान के चरणारविन्दों में लगा रहता था. विषयों से विरक्त रहता हुआ मैं पूर्ण रूप से तपस्वी बन गया. किन्तु उस समय वह तपस्या समाप्त हो गई जब मेरा विवाह हो गया.’
तभी एक सखी बीच में ही बोल उठी ‘विवाह होने पर तो तपस्या का भंग होना स्वाभाविक ही था. सभी की यही दशा होती है, तब तुम्हारी बात में क्या विशेषता है?’
शनि ने कहा- ‘विशेषता है तभी तो कह रहा हूं. उस विशेषता पर भी ध्यान दो. मेरा विवाह चित्ररथ की अत्यन्त सुन्दरी, तेजस्विनी कन्या से हुआ था. वह सती भी निरन्तर तपस्या में लगी रहती. एक बार जब वह ऋतुस्नाता हुई तब उसने सोलहो श्रृंगार किए. उस समय वह दिव्य अलंकारों से विभूषित और अत्यन्त शोभामयी लग रही थी. उसके रूप और श्रृंगार दोनों ने मिलकर सोने में सुहागे का ही कार्य किया था. उस समय उसका रूप मुनियों को भी मोहित कर लेने वाला बन गया.’
‘रात्रि होने पर वह मेरे पास उपस्थित हुई. मैं भगवान् श्रीकृष्ण के ध्यान में तल्लीन था, इसलिए उसके आगमन पर भी मैंने ध्यान न दिया. किन्तु वह तो मदान्वित हो रही थी, कुछ तीखे स्वर में बोली- ‘स्वामि! मेरी ओर देखो तो सही. किन्तु मैंने उसकी ओर कुछ भी ध्यान न दिया.’
‘वह अपने चंचल नेत्रों से देख रही थी, किन्तु मेरी तल्लीनता भंग न हो पाई. उसने अपने को असफल प्रयास देखा तो क्रोधित हो गई. क्योंकि उसका ऋतुकाल व्यर्थ हो रहा था. क्रोध में भी उसने मुझे चैतन्य करने का भरसक प्रयत्न किया था.’
‘जब वह मेरा ध्यान भंग करने में सफल नहीं हो सकी तब सहसा कामवती कह बैठी-
“न दृष्टाहं त्वया येन न कृतमृतुरक्षणम् । त्वया दृष्टछ यद्वस्तु मूढ! सर्वं विनश्यति ॥”
‘अरे मूढ़! तूने मेरी ओर देखा तक नहीं, इस कारण मेरे ऋतुकाल की रक्षा नहीं हो सकी अर्थात् मेरा ऋतुकाल व्यर्थ ही जा रहा है. इस कारण अब तू जिस किसी को भी देखेगा, वह अवश्य ही नष्ट हो जायेगा.’
‘उसका शाप मेरे कानों में पड़ा जिससे मेरा ध्यान भंग हो गया. नेत्र खोलकर देखा तो मेरी पत्नी ही खड़ी है. वह उस समय अत्यन्त सुन्दर प्रतीत हो रही थी. सोचने लगा, यह तो मेरी पत्नी है, इसने मुझे ऐसा शाप क्यों दे दिया? वस्तुतः यह मेरी भूल भी है कि विवाह करके भार्या को सन्तुष्ट करने के अपने कर्त्तव्य से विमुख ही रहा.’
फिर सोचा- ‘यदि अब भी सन्तुष्ट कर लूं तो शाप से बच सकता हूं।’ ऐसा विचार दृढ़ करके मैंने शान्त करने का प्रयत्न किया-‘देवि! प्राणप्रिये! मैं ध्यानावस्थित था. इसी से तुम्हारी याचना नहीं सुन सका, अन्यथा तुम्हारी उपेक्षा कभी नहीं करता. अब मुझे जो आज्ञा हो करने को तैयार हूं.’
‘इसी प्रकार मैंने उसे अनेक बार मनाया और जब वह शांत हो गई तब उसे काम्य प्रदान कर उससे शाप मिथ्या करने का आग्रह करने लगा. परन्तु, अब ऐसी कोई शक्ति न रह गई थी, जो अपने शाप को वह नष्ट कर सकती. शाप देने के कारण उसका पातिव्रत धर्म अशक्त हो गया था. उसने बहुत पश्चात्ताप करते हुए कहा भी था कि ‘मुझसे बड़ी भूल हो गई, मैं चाहती हूं कि मेरे द्वारा दिया गया शाप नष्ट हो जाए.’
‘किन्तु शाप नष्ट नहीं हुआ. ऐसा ही समझता हुआ मैं उस दिन से किसी की भी ओर आंख उठाकर नहीं देखता. क्योंकि आंख उठाकर देखने से न जाने किसका अहित हो जाए. लोक-कल्याणार्थ ही मैं सब समय अपना मस्तक झुकाए रखता हूं. इसलिए कहा जाता है कि शनि की वक्र दृष्टि जिसपर भी पड़ गई उसका नाश निश्चित है. वैसे शनिदेव बड़े ही नियमप्रिय और न्याय के पक्षधर हैं. वे डरावने कहे गए हैं परन्तु केवल पापियों के लिए.
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