महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2024
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महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में कई चेहरे मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। यहां कौन-सा दल कितनी सीटों पर चुनाव लड़ेगा, इससे ज्यादा माथापच्ची इस बात पर चल रही है कि चुनाव नतीजे अगर अपने-अपने पक्ष में आते हैं तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा? यहां दो गठबंधन हैं, जिनमें तीन-तीन पार्टियां मुख्य घटक दल हैं। हर दल के पास मुख्यमंत्री पद के अपने-अपने दावेदार हैं। इस बार खबरों के खिलाड़ी में इसी मुद्दे पर चर्चा हुई। चर्चा के लिए वरिष्ठ पत्रकार रामकृपाल सिंह, विनोद अग्निहोत्री, अवधेश कुमार, राकेश शुक्ला और समीर चौगांवकर मौजूद थे।
महाराष्ट्र में कांग्रेस की स्थिति कैसी नजर आ रही है?
रामकृपाल सिंह: 1990 में राजीव गांधी ने एक गलती की थी। नारायण दत्त तिवारी विपक्ष के नेता थे। मुलायम सिंह यादव अल्पमत में आ गए थे। तब उन्हें सदन के अंदर सपा का समर्थन करना पड़ा। अब उत्तर प्रदेश की नौ सीटों पर उपचुनाव होने जा रहे हैं और 34 साल बाद भी कांग्रेस उसी समाजवादी पार्टी का समर्थन कर रही है। महाराष्ट्र में भी कांग्रेस का यही हाल है। कांग्रेस ने हमेशा वहां सौ से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ा। इस बार शायद पहली बार सौ से कम सीटों पर लड़ेगी। कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के लिए बैसाखी बन गई है। राकांपा ने जयंत पाटिल का नाम आगे कर दिया है। भाजपा ने ज्यादातर सफलताएं बिना चेहरे के हासिल की हैं। भाजपा ऐसी मूर्ति के साथ चुनाव लड़ती है, जिसका अनावरण नहीं हुआ है और जो पर्दे में ढंकी होती है। इससे उसके खेमे में गुटबाजी कम हो जाती है। भाजपा हमेशा संगठन से सत्ता में पहुंची है। उधर, कांग्रेस जितनी बार चुनाव हारती है या मुकाबले में नजर नहीं आती, उतनी बार उसका संगठन ध्वस्त हो जाता है। भाजपा इंजन है और सहयोगी दल उसके डिब्बे हैं। वहीं, कांग्रेस खुद डिब्बा है और वह सहयोगी दलों को अपना इंजन बना देती है।
क्या मान लिया जाए कि वहां क्षेत्रीय दल ज्यादा ताकतवर हैं?
विनोद अग्निहोत्री: विधानसभा चुनाव जब होते हैं तो क्षेत्रीय दल अपनी ताकत दिखाते हैं। लोकसभा चुनाव में वे राष्ट्रीय दलों को मौका देते हैं, लेकिन राज्य के चुनाव में वे अपना दबदबा चाहते हैं। हालांकि, लोकसभा चुनाव के दौरान भी उद्धव ठाकरे की अगुआई वाली शिवसेना ज्यादा सीटों पर लड़ी। कांग्रेस के सामने चुनौती जमीन बचाने की है। वह न गठबंधन को छोड़ सकती है, न अकेले चुनाव लड़ सकती है। कांग्रेस को कहीं न कहीं समझौता करना पड़ेगा। उधर, भाजपा का मनोबल अभी ऊंचा है। भाजपा के सामने चुनौती यह है कि उसे कम से कम 110 सीटें जीतनी होंगी। भाजपा के सामने सवाल यह है कि वह कब तक एकनाथ शिंदे और नीतीश कुमार जैसे नेताओं के भरोसे रहे। मुख्यमंत्री पद के सवाल पर ही भाजपा-शिवसेना के बीच गठबंधन टूटा था। कांग्रेस ने जिस तरह अपनी जमीन छोड़ी है, वैसा ही भाजपा के साथ भी है। अगर वह पीछे हटती गई तो क्षेत्रीय दल भाजपा की भी जगह ले लेंगे। उधर, कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सारे प्रयोग कर चुकी। वह उत्तर प्रदेश में कोई एक मजबूत नेता खड़ा नहीं कर पाई।
दोनों गठबंधनों में फर्क क्या है?
अवधेश कुमार: महाराष्ट्र के परिप्रेक्ष्य में बात करें तो दोनों गठबंधनों में बुनियादी फर्क है। जब राकांपा और कांग्रेस साथ थे तो वहां सब ठीक था। शिवसेना-यूबीटी के साथ आ जाने से परेशानियां ज्यादा बढ़ गईं। भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन में संयम नजर आ रहा है, लेकिन विपक्षी गठबंधन में ऐसा नहीं है। सपा भी ताल ठोंक रही है। भाजपा 150 के आसपास सीटों पर वहां लड़ सकती है। उधर, कांग्रेस में भरोसा नहीं नजर आ रहा। उनका लक्ष्य ही भटका हुआ है। कांग्रेस के साथी दल यह समझ चुके हैं कि कांग्रेस के पास उनके अलावा कोई चारा नहीं है। पहले यह स्थिति थी कि नोट के बदले वोट के खेल को भाजपा भुना नहीं पाई। 2014 के बाद से भाजपा ने स्थिति पलट दी है। महाराष्ट्र में अधिकतम निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा और कांग्रेस आमने-सामने रहेगी। बाकी सीटों पर शिवसेना-1 बनाम शिवसेना-2 और राकांपा-1 बनाम राकांपा-2 के बीच मुकाबला होगा।
भाजपा और शिवसेना के सामने चुनौती क्या है?
राकेश शुक्ला: भाजपा के सामने सबसे बड़ी समस्या एकनाथ शिंदे हैं। भाजपा चाहती है कि शिंदे कम सीटों पर लड़े। मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पर शिंदे अपना एकाधिकारी मानने लगे हैं। बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा वाली स्थिति में शिंदे सीएम बने। लोकसभा चुनाव में जिस तरह का प्रदर्शन हुआ, उसके बाद विपक्षी गठबंधन में प्रतिस्पर्धा आ गई। एक नाम नाना पटोले का है, दूसरा नाम उद्धव ठाकरे का है। राकांपा सरपंची कर रही है। राकांपा की यह कोशिश है कि कांग्रेस-शिवसेना के बीच झगड़ा चलता रहे और फायदा उसे मिल जाए। अभी राकांपा से जयंत पाटिल का नाम आगे किया गया है, लेकिन सीएम बनने की स्थिति बनने पर सुप्रिया सुले को कमान सौंपी जा सकती है। शिवसेना के सामने यही चुनौती है। उधर, अजीत पवार की पार्टी का लोकसभा चुनाव में प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा। राकांपा का मूल वोट तो कांग्रेस की तरफ भी कम ही जाता है। शरद पवार जानते हैं कि उनका वोट नहीं बिखरेगा। वे निश्चिंत हैं कि उनकी पार्टी जितनी भी सीटों पर लड़ेगी, उसका प्रदर्शन अच्छा रह सकता है।
क्या नीतीश के उदाहरण की तुलना शिंदे से हो सकती है?
समीर चौगांवकर: महाराष्ट्र में तो 72 घंटे के भी मुख्यमंत्री रहे हैं। वहां अभी भी मुख्यमंत्री पद की हसरत रखने वाले कई चेहरे हैं। लोकसभा चुनाव के नतीजे जिस तरह रहे, उसके बाद कांग्रेस-शिवसेना को तुरंत बैठकर विधानसभा चुनाव की रणनीति तय कर लेनी थी। वहां महाविकास आघाड़ी के लिए अनुकूल स्थिति थी, लेकिन कांग्रेस का ढर्रा जीती हुई बाजी को हारने का रहा है। भाजपा की मजबूरी यह रही कि उद्धव ठाकरे को संदेश देने के लिए उसने शिंदे को सीएम बनाया। अब सवाल यह है कि अगर भाजपा को 110-120 से ज्यादा सीटें मिल जाती हैं, तब भी क्या शिंदे को वह मुख्यमंत्री बनाएगी? शिंदे और नीतीश की तुलना नहीं हो सकती क्योंकि बिहार में नीतीश का कद महाराष्ट्र में शिंदे के कद की तुलना में बड़ा है। हालांकि, शिंदे अभी सीटें भी ज्यादा चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि सीटें कितनी भी जीतकर आएं, सीएम वही बनेंगे।