इंदौर. मुंबइया हिंदी फिल्मों की पहचान रहे, दीवारों और सिनेमाघरों में दिखने वाले पोस्टर, अब बीते जमाने की बात हो चुके हैं. बदलते दौर में मल्टीप्लेक्स ने सिनेमाघर की जगह ली, तो हाथ से घंटों मेहनत कर तैयार होने वाले पोस्टरों की जगह कंप्यूटर से बनने वाले फ्लेक्स ने ले ली. शहर में जगह-जगह चिपकाए जाने वाले इन पोस्टरों पर कलाकार की तस्वीर हूबहू भले नहीं रहती थी, लेकिन पोस्टर का मैसेज एकदम साफ समझ में आ जाता था. बदलते दौर में ऐसे पोस्टर बनाने वाले कलाकार भी गुमनामी में खो गए, लेकिन मध्य प्रदेश के इंदौर में अभी एक ऐसा कलाकार है, जिसने पुराने दौर की इस स्मृति को फिर से जिंदा करने और उसे आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाने की कोशिश की है.
इंदौर में रहने वाले 70 साल के बुजुर्ग पोस्टर आर्टिस्ट पुरुषोत्तम सोलंकी ने बचपन से ही फिल्मी पोस्टर के निर्माण की बारीकियां जानी हैं. लंबे समय तक इस क्षेत्र में काम किया है, सो अपने काम के प्रति चाहत गजब की है. इसी चाहत में पुरुषोत्तम सोलंकी ने कुछ ऐसा किया, जो इन दिनों सोचा भी नहीं जा सकता. इंदौरी कलाकार ने हिंदी सिनेमा की शुरुआत से उसके सुनहरे दौर में बनी फिल्मों के पोस्टर बनाए हैं. जैसे दशकों पहले सिनेमाहॉल या दीवारों पर चिपकाए जाते थे, बिल्कुल वैसे ही दिखने वाले पोस्टर. पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र हो या पहली बोलती फिल्म आलमआरा, सर्वकालिक महान फिल्मों में शुमार गाइड या मधुमती, आवारा, अनारकली या कोई और…पुरुषोत्तम सोलंकी ने ऐसी 100 फिल्मों के पोस्टर अपने हाथ से बनाए हैं.
राजमंदिर की पहली फिल्म, पहला पोस्टर
लोकल18 ने इंदौर के इस विलक्षण कलाकार से बात की. 70 वर्ष के पुरुषोत्तम बताते हैं कि जयपुर में पढ़ाई के साथ चाचा नंदकिशोर सोलंकी से उन्होंने चित्रकारी सीखी. फिर सिनेमा के पोस्टर बनाने लगे. सोलंकी बताते हैं कि जयपुर के प्रसिद्ध सिनेमाहॉल राज मंदिर में पहली फिल्म लगी चरस, उसका पोस्टर भी मैंने बनाया था. जितना प्रचार होता था, उतनी मांग आती थी. इंदौर, उज्जैन, भोपाल, ग्वालियर तक हमारे बनाए पोस्टर जाते थे. जयपुर में 12 साल काम करने के बाद इंदौर आ गया. तब टॉकीजों पर पोस्टर लगते थे, फिल्म के साथ पोस्टर देखना भी शगल हुआ करता था. मगर वह दौर बीत गया. फ्लेक्स ने पोस्टर की जगह ले ली. फिर कलाकारों को तंगी का सामना करना पड़ा. पहले पोस्टर चार से पांच कलाकार बनाते थे, लेकिन अब यह मशीनों का काम हो गया है. अपने बनाए 100 पोस्टरों के बारे में सोलंकी कहते हैं कि इन्हें अकेले ही बनाया है. किसी-किसी पोस्टर को पूरा करने में करीब 2 महीने भी लगे. क्योंकि इनकी कोटिंग होती है, फिर रंग चढ़ता है और बार बार सुखाने की प्रक्रिया अलग.
100 साल तक चलने की गारंटी
फिर से पोस्टर बनाने का ख्याल क्यों आया? इस सवाल पर पुरुषोत्तम सोलंकी कहते हैं कि पुराना दौर समाप्त होने के बाद लगा कि फिल्मी पोस्टर से कुछ करना चाहिए. यह काम बंद हो गया, तो जी चलाने के लिए कुछ तो करना था, इस उम्र में कोई दूसरा काम मिलने से रहा, तो वर्ल्ड रिकॉर्ड की तरफ दिमाग लगाया. इसी बीच कोरोना वायरस बीमारी आ गई. 2020 से काम शुरू कर दिया. सोलंकी ने साल 1913 से लेकर 1980 तक की फिल्मों के 100 पोस्टर बनाए हैं. इन्हें बनाने में 4 साल लगे. लकड़ी, कैनवस, प्लायवुड, पाउडर कलर आदि के साथ कई अन्य सामान लगते हैं. सोलंकी ने बताया कि लकड़ी लाबरिया भेरू से, कपड़ा मार्केट से कैनवास, पाउडर कलर बोहरा बाजार या सियागंज से, ट्यूब कलर जेलरोड से खरीदते हैं. उन्होंने दावा किया कि ये रंग 100 साल तक चलेंगे. शुद्ध अलसी तेल का इस्तेमाल कर ये रंग बनाए हैं.
लता मंगेशकर ऑडिटोरियम में लगाने की इच्छा
लोकल18 से बातचीत में पुरुषोत्तम सोलंकी बताते हैं कि वे 55 बरस से इस कला को संवार रहे हैं. ये जो पोस्टर बनाए हैं वह मास्टर साइज, यानी 30 बाय 40 इंच के हैं. भारत की पहली गूंगी फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’, फिर बोलती फिल्म आलमआरा’ से 1980 तक बनी सुपरहिट फिल्मों ‘गाइड’ ‘अनारकली’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘मधुमती’, ‘आवारा’ आदि के यूनिक पोस्टर बनाए हैं. वे बताते हैं कि नया काम शुरू करने से पहले इन पोस्टरों की इंटरनेशनल बाजार में ऑनलाइन सेल लगाऊंगा. सोलंकी कहते हैं कि वे पोस्टरों को लता मंगेशकर ऑडिटोरियम में लगाना चाहते हैं, क्योंकि जितने पोस्टर बनाए हैं, उनमें से नब्बे फीसद फिल्मों में लता मंगेशकर मंगेशकर के गाने हैं. कोई रिसॉर्ट, होटल या गार्डन मिल जाए, वहां पोस्टर लगे रहें, ताकि इंदौर का नाम हो और मेरी भी पहचान बनी रहे.
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FIRST PUBLISHED : June 17, 2024, 18:56 IST