भूपेंद्र सिंह हुड्डा, कुमारी सैलजा, रणदीप सिंह।
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कांग्रेस पार्टी के नेताओं में एक पुराना रोग लगा है, अपनी नफासत का। इस नफासत में ठसक इतनी है कि कांग्रेस सांसद राहुल गांधी चाहे जितना जोर लगा दें, लेकिन पार्टी नेताओं के दिल नहीं मिल पाते। पहले पार्टी मध्य प्रदेश में इसका शिकार हुई और अब हरियाणा में भी हो गई है। पार्टी के प्रवक्ता पवन खेड़ा और मीडिया विभाग के प्रमुख जयराम रमेश हरियाणा के चुनाव नतीजे नहीं स्वीकार कर पा रहे हैं। सूत्र बताते हैं कि चुनाव का नतीजा पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के भी गले के नीचे नहीं उतर रहा है। कांग्रेस को उम्मीद थी कि इस बार राज्य में बहुमत मिल जाएगा, लेकिन काफी हद तक भूपेन्द्र हुड्डा को खुली छूट देने के बाद भी तीसरी बार सत्ता हाथ से छिटक गई।
कांग्रेस की हार से दो दलों ने ली राहत की सांस
चुनाव की अधिसूचना जारी से ठीक पहले भूपेन्द्र हुड्डा ने इंडिया गठबंधन पर बयान दिया था। उन्होंने इंडिया गठबंधन को लोकसभा चुनाव का गठबंधन बताया था। इससे सबसे ज्यादा मिर्ची पार्टी की उत्तर प्रदेश लोकसभा चुनाव में सहयोगी समाजवादी पार्टी को लगी थी। पार्टी के एक महासचिव हरियाणा में दो-तीन सीटें चाह रहे थे। अखिलेश यादव के एक करीबी अपने बेटे को चुनाव लड़ाना चाहते थे। लेकिन हुड्डा की सलाह पर चली कांग्रेस ने उन्हें कोई भाव नहीं दिया। समाजवादी पार्टी के नेताओं ने इसे कांग्रेस के नेताओं का घमंड करार दिया और लगे हाथ दबी जुबान से मध्य प्रदेश के नतीजे दोहराए जाने की भविष्यवाणी भी कर दी। दूसरा दल है, आम आदमी पार्टी। आम आदमी पार्टी हरियाणा में तालमेल करके 10 सीट पर चुनाव लडने के लिए इच्छुक थी, लेकिन कांग्रेस का मीटर पांच सीट से आगे नहीं बढ़ पाया। लिहाजा तालमेल फेल हो गया। आम आदमी पार्टी के एक राज्यसभा सांसद ने चुनाव परिणाम आने के बाद कहा कि जले पर नमक छिडकना ठीक नहीं, लेकिन राजनीति में अहंकार का फल तो मिल ही जाता है। कांग्रेस पार्टी तमाम सीटों पर मामूली अंतर से हारी है। हमारे दल के साथ तालमेल हुआ होता तो दोनों मिलकर कम से 55 सीटें लेकर आते।
प्रियंका ने संभाली कमान, लेकिन म्यान से निकले तीर ने खेल बिगाड़ दिया
कभी रणदीप सुरजेवाला के लिए दिन रात पसीना बहाने वाले सूत्र का कहना है कि कांग्रेस में अगर गुटबाजी न हो तो उसे हराना मुश्किल है। सूत्र का कहना है कि भाजपा में बहुत गुटबाजी है। कांग्रेस से भी कहीं ज्यादा है, लेकिन संघ और भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व के आगे यह बेबस हो जाती है। सूत्र का कहना है कि पिछली बार अशोक तंवर कांग्रेस को छोड़कर भाजपा में चले गए थे। इस बार लौट आए, लेकिन किरण चौधरी पार्टी को छोड़कर चली गई। कुमारी सैलजा अपने घर बैठ गईं थी। सैलजा को लेकर पूर्व मुख्यमंत्री के समर्थकों की टिप्पणी ने भी कांग्रेस का बंटाधार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सैलजा मनाने पर चुनाव प्रचार में सक्रिय हुईं। रणदीप सुरजेवाला को ही ले लीजिए। दबे और बुझे मन से लोगों ने पार्टी में प्रचार की जिम्मेदारी निभाई।
दरअसल हरियाणा में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने पर्दे के पीछे से लोगों को मनाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। राहुल गांधी ने अपने आपको जम्मू-कश्मीर के चुनाव प्रचार में काफी व्यस्त रखा। राहुल के लिए नेशनल कॉन्फ्रेस के साथ मिलकर जम्मू-कश्मीर में जीत तय करना महत्वपूर्ण था। राहुल हरियाणा में पार्टी के भीतर गुटबाजी से परेशान थे। बहादुरगढ़ से सोनीपत रोड शो के दौरान कहा भी कि हमारे कार्यकर्ता बब्बर शेर हैं। कभी-कभी आपस में ही लड़ जाते हैं। हमारा काम इन्हें आपस मे मिलाने का है। हालांकि आखिरी दस दिनों में राहुल ने हरियाणा में भी सब कुछ साधने के लिए काफी प्रयास किया। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र हुड्डा ने इस दौरान 10 जनपथ से अपने संपर्क, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे से संबंध के चलते बढ़त बनाने में सफल रहे, लेकिन इस बढ़त ने पर्दे के पीछे से कांग्रेस को बड़ा झटका दे दिया।
क्या गुलाबी पगड़ी वाले भूपेन्द्र हुड्डा अब कमजोर पड़ गए?
भूपेन्द्र हुड्डा हरियाणा के कद्दावर नेता हैं। राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। दिल्ली के राम लीला मैदान में पार्टी की जनसभाओं में अपने समर्थकों को कभी गुलाबी पगड़ी पहनाकर अपनी ताकत दिखाने की तरकीब अपनाई थी। राहुल गांधी के प्रिय अशोक तंवर को पार्टी में रुतबा नहीं बढ़ाने दिया था। किरण चौधरी कभी भी कांग्रेस अपनी पकड़ नहीं बना सकीं। चौधरी वीरेन्द्र सिंह तंज भरे लहजे में कहते थे कि अभी तो हरियाणा में हुड्डा हैं? रणदीप सुरजेवाला की भी हुड्डा परिवार ने राज्य में कभी दाल नहीं गलने दी। लेकिन हुड्डा के बारे में कहा जाता है कि वह कांग्रेस पार्टी के प्रतिद्वंदियों को पछाड़ने में भले सफल रहे हों, लेकिन भाजपा के लिए 10 साल के भीतर भी चुनौती नहीं खड़ी कर पाए।