पीएम नरेंद्र मोदी
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चुनाव हों और चुनावी शिगूफा न हो? भारत जैसे लोकतंत्र में फिर चुनाव का अर्थ ही क्या? तीसरे चरण के मतदान से पहले उत्तर प्रदेश में तमाम चुनावी धारणाओं, अफवाहों ने जगह बनानी शुरू कर दी है। बिहार और मध्यप्रदेश में भी हाल निराला होने की तरफ बढ़ रहा है। उत्तर प्रदेश के एक तेज तर्रार जिलाधिकारी निजी बातचीत में बताते हैं कि चुनाव के समय चलने वाली चर्चा का जनता में बड़ा असर पड़ता है। मुरादाबाद के एक शिक्षाधिकारी ने कहा कि पहले लग रहा था, रुचि वीरा चुनाव नहीं लड़ पाएंगी। एचटी हसन की नाराजगी सपा को भारी पड़ेगी, लेकिन चुनाव ड्यूटी में कांटे की टक्कर दिखाई दी है।
सूत्र का कहना है कि लोकसभा चुनाव 2024 सही मायनों में विपक्ष नहीं लड़ रहा है। यह तो प्रधानमंत्री की लोकप्रियता और जनता चुनाव लड़ रही है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक मंडलायुक्त ने कहा कि वह राजनीति पर खुलकर नहीं बोल सकते, लेकिन पिछले एक महीने में बहुत कुछ बदलता दिखाई दिया। वह कहते हैं कि ठाकुरों की नाराजगी का मुद्दा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से रंग पकड़ना शुरू हुआ। अब इसका असर पूरब तक जा रहा है। वह बताते हैं कि कैसरगंज से बृजभूषण शरण सिंह को टिकट मिलने में सस्पेंस, बाहुबली धनंजय सिंह का जेल जाना, सात साल की सजा, उनकी पत्नी को बसपा का टिकट सब चुनावी हथियार के रूप में इस्तेमाल हो रहा है।
योगी आदित्यनाथ को लेकर भी उड़ रही अफवाह
हाल में सेवानिवृत्त हुए पीपीएस अधिकारी बताते हैं कि सेवानिवृत्त होने के बाद वह लगातार पूरे प्रदेश में घूम रहे हैं। अयोध्या, मथुरा, वृंदावन घूम रहे हैं। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि अयोध्या में राम मंदिर के बाद सबसे अधिक भगवा चमक वाले मथुरा में मतदान का प्रतिशत इस तरह से गिरेगा। राजपूत (ठाकुर) मतदाताओं की नाराजगी का मुद्दा उठेगा। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दो चरणों के चुनाव को जाट बनाम ठाकुर का रंग देने के बाद पूरे प्रदेश में यह शिगूफा चलेगा? सूत्र का कहना है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार को तो क्षत्रियों की सरकार का रंग दिया जा रहा था। फिर यह हवा क्यों? डीआईजी पद से सेवानिवृत्त हुए सूत्र का कहना है कि पूरे प्रदेश में यह अफवाह तेजी से फैल रही है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीसरी बार सत्ता में लौटे ,तो भाजपा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जगह किसी और को मौका दे सकती है। सूत्र का कहना है कि शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे को पहले ही भाजपा मुख्यमंत्री पद से हटा चुकी है। इसलिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ-साथ घूमें, लेकिन मतदाताओं में बिना सिर-पैर की यह अफवाह तेजी से जगह बना रही है।
मार्च से अप्रैल के दूसरे सप्ताह तक नहीं मिल रहे थे प्रत्याशी
उत्तर प्रदेश सरकार के बड़े अधिकारी निजी चर्चा में कहते हैं कि 15 मार्च से 15 अप्रैल तक विपक्ष को प्रत्याशी नहीं मिल रहा था। समाजवादी पार्टी ने एक सीट पर ही कई बार प्रत्याशी बदला। अप्रैल के दूसरे सप्ताह तक समाजवादी प्रमुख के चुनाव न लड़ने की सूचना छप रही थी। हालत यह थी कि राष्ट्रीय लोकदल के जयंत चौधरी इंडिया गठबंधन का साथ छोड़कर एनडीए के साथ चले गए। तमाम बड़े नेताओं ने खुद के बजाय बेटे या रिश्तेदार को मैदान में उतार दिया। अब समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव चुनाव मैदान में उतर गए हैं। कांग्रेस पार्टी के नेता अमेठी से राहुल गांधी और रायबरेली से प्रियंका गांधी के चुनाव लड़ने की हवा बना रहे हैं। सूत्र का कहना है कि यह सब कहीं न कहीं जमीनी स्तर पर जनता के रुख और उसके मनोभाव को देखकर हो रहा है।
अल्पसंख्यक मतदाता एकजुट
राज्य के करीब एक दर्जन अधिकारियों से बातचीत के तमाम निष्कर्ष रहे। एक सवाल पर लगभग 90 फीसदी लोगों की राय अल्पसंख्यक (खासकर, मुसलमान) मतों पर एक ही रही। सभी का कहना है कि अल्पसंख्यक एकजुट होकर उसी को वोट देता महसूस हो रहा है, जो केंद्र में सरकार बना सके या फिर भाजपा की केंद्र की सरकार को सत्ता से हटा सके। अल्पसंख्यक मतदाताओं ने अपने वोट डालने के लिए घर से निकलने के समय आदि में भी बहुत सावधानी बरती है। उत्तर प्रदेश की जिन 16 सीटों पर मतदान हो गए हैं, उनमें जमीनी स्तर पर मंहगाई, बेरोजगारी, जनता से जुड़े मुद्दे लोगों के दिमाग में थे। इन मुद्दों से देश में एक्सप्रेस-वे, विकास और प्रधानमंत्री मोदी जी की लोकप्रियता मुकाबला कर रही थी।
गोरखपुर से लेकर गाजियाबाद तक तमाम बातचीत में ज्यादातर लोगों का कहना है कि नरेंद्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री बन सकते हैं, भले उनका यह आखिरी कार्यकाल हो। उत्तर प्रदेश के लोग नरेंद्र मोदी का सबसे मजबूत विकल्प योगी को मानते हैं। इस दौड़ में अमित शाह भी हैं। राहुल गांधी और अखिलेश यादव का नाम लेने पर लोग उनकी काबिलियत पर बात करते हैं। राज्य के एक पूर्व स्पेशल सेक्रेटरी का कहना है कि विजन (दृष्टिकोण) भी कोई चीज होती है? प्रधानमंत्री का पद और जिम्मेदारी संभालना आसान काम नहीं है। प्रधानमंत्री ने इसके लिए खुद को साबित किया है। दूसरे नेताओं को अभी खुद को साबित करना है। इसलिए यह फर्क तो रहेगा।