जलवायु वित्त पर बढ़ा असमंजस
– फोटो : freepik
विस्तार
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप की जीत ने कॉप-29 बातचीत पर खासा असर डाला है। आशंका जताई जा रही है कि वह अमेरिका की ओर से दिए जाने वाला जलवायु वित्त योगदान रोक देंगे। इससे जलवायु वित्त का संतुलन बिगड़ जाएगा। ऐसे में नया वैश्विक जलवायु वित्त तय करने में अमीर देश आनाकानी करेंगे, क्योंकि उन्हें इसे पूरा करने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। कुछ जलवायु वार्ताकारों को आशंका है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था से योगदान की अपेक्षित कमी को देखते हुए कॉप-29 में जिस पूरे लक्ष्य पर सहमति बनेगी, वह कम होगा।
अमेरिका ने बीते साल अंतरराष्ट्रीय जलवायु वित्त में लगभग 10 अरब डॉलर दिए थे। यह यूरोपीय संघ के 31 अरब डॉलर के योगदान से 21 अरब डॉलर कम है। अब तक, केवल कुछ दर्जन अमीर देशों को ही संयुक्त राष्ट्र जलवायु वित्त का भुगतान करने के लिए मजबूर किया जा सका है। ऐसे में वे चाहते हैं कि चीन और खाड़ी के तेल राष्ट्र जैसे तेजी से विकासशील देश भी इस लक्ष्य के लिए भुगतान करना शुरू करें।
चीन इसका खासा विरोध करता है। वह कहता है कि एक विकासशील देश के तौर पर उसकी ब्रिटेन और अमेरिका जैसे लंबे वक्त से औद्योगिक विकास करने वाले देशों के जैसी जिम्मेदारी नहीं बनती है। चीन पहले से ही अपनी शर्तों पर विदेशों में इलेक्ट्रिक वाहनों और नवीकरणीय ऊर्जा में सैकड़ों अरबों डॉलर का निवेश कर रहा है। बात यहां आकर अटकती है कि किसी भी कॉप-29 सौदे में सभी देशों की मंजूरी जरूरी होती है।
सालाना एक खरब डॉलर से अधिक की है दरकार
अधिकांश अनुमानों के मुताबिक, विकासशील देशों को अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने और अपने समाज को मौसम के चरम से बचाने के लिए हर साल एक खरब डॉलर यानी करीब 85 खरब रुपये से अधिक की जरूरत है। यही वजह है कि कई देश इस संख्या को ध्यान में रखते हुए बाकू की जलवायु वार्ता में पहुंचे हैं। मसलन, सऊदी अरब सहित अरब देश सालाना 1.1 खरब डॉलर का वित्तपोषण लक्ष्य चाहते हैं। वे चाहते हैं कि इसमें से 441 अरब डॉलर सीधे विकसित देशों की सरकारों से अनुदान के तौर पर मिलें।
अभी तक क्या तय हुआ…
भारत, अफ्रीकी देशों और छोटे द्वीप राष्ट्रों ने भी कहा है कि सालाना एक खरब डॉलर से अधिक जुटाए जाने चाहिए, लेकिन अमीर देशों ने नए लक्ष्य के लिए खास रकम तय नहीं की है। यूएस और ईयू राजी हैं कि यह बीते 100 अरब डॉलर के लक्ष्य से अधिक होना चाहिए। वहीं, कुछ विकसित देशों के राजदूतों ने अपने राष्ट्रीय बजट पर दबाव की बात कहते हुए कहा है कि उनसे 100 अरब डॉलर से अधिक की मांग या अपेक्षा करना गैरवाजिब है।
यह है लक्ष्य
अमीर देशों ने 2009 में विकासशील देशों को स्वच्छ ऊर्जा में परिवर्तन की लागतों से निपटने और गर्म होती दुनिया की परिस्थितियों के अनुकूल होने में मदद के लिए सालाना 100 अरब डॉलर का योगदान करने का वादा किया था। उन्होंने भुगतान 2020 में शुरू किया था, लेकिन पूरा पैसा 2022 में मिल पाया।
अब इस साल 100 अरब डॉलर वाले इस वादे की मियाद पूरी हो रही है। अब दुनिया के देश अगले साल से शुरू होने वाले नए भुगतान के लिए इससे भी बड़ी रकम पर सहमति बनाने के लिए बातचीत कर रहे हैं, लेकिन कुछ देश इतनी बड़ी रकम को पुख्ता करने से हिचक रहे हैं, जब तक कि यह साफ न हो जाए कि कौन सा देश इस रकम में कितना योगदान देगा? इसके बजाय वे बहुस्तरीय लक्ष्य तय करने की सोच के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं।
अब वे केवल सरकारों के पैसे पर निर्भर रहने की जगह अमीर देशों के सरकारी खजाने से एक मुख्य रकम, यानी थोड़े पैसे और एक बड़ी रकम बहुपक्षीय ऋण संस्थानों (बैंक) या निजी निवेशकों (कंपनियों) के जरिये देने पर विचार कर रहे हैं। अतीत में 100 अरब डॉलर के लक्ष्य का एक बड़ा हिस्सा सार्वजनिक धन से आया था। इस बीच, मंगलवार को कॉप-29 शिखर सम्मेलन के दौरान यह जानकारी दी गई कि दुनिया के 10 बहुपक्षीय विकास बैंकों ने गरीब व मध्यम आय वाले देशों को जलवायु वित्त के रूप में 2030 तक 120 अरब डॉलर का कर्ज देने की मंजूरी दी है।
इतना मायने क्यों रखता है वित्त
- मानवीय गतिविधियों ने, खास तौर से जीवाश्म ईंधन जलाने से धरती का दीर्घकालीन औसत तापमान करीब 1.3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा दिया है। इससे आए दिन दुनिया में विनाशकारी बाढ़, तूफान और अत्यधिक गर्मी का दौर बढ़ गया है।
- उत्सर्जन में कटौती की योजनाएं जलवायु परिवर्तन की रफ्तार धीमी करने के लिए नाकाफी हैं। इसके उलट, इससे गर्मी और बढ़ेगी। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगले साल की यूएन की समय सीमा देशों के लिए राष्ट्रीय जलवायु योजनाओं को सुधारने और जलवायु आपदाओं को टालने का आखिरी मौका है।
- वार्ताकारों का कहना है कि अगर कॉप-29 में पहले से अधिक जलवायु वित्तपोषण यानी धन देने पर कोई समझौता या सहमति नहीं बन पाती, तो ऐसे में कुछ देश यह तर्क देते हुए कमजोर जलवायु योजनाएं पेश कर सकते हैं कि उनके पास अधिक महत्वाकांक्षी योजनाओं को लागू करने के लिए पैसे नहीं हैं।