मुस्लिम मतदाता।
– फोटो : अमर उजाला
विस्तार
आबादी 17 करोड़ और देश की सौ लोकसभा सीटों पर प्रभाव। इनमें से 65 सीटों पर 30 फीसदी से अधिक, तो 40 सीटों पर 35 से 70 फीसदी वोट की हिस्सेदारी। बावजूद इसके टिकट वितरण मामले में मुस्लिम वर्ग किसी दल के एजेंडे में नहीं है। खुद को धर्मनिरपेक्ष बताने वाले दलों ने भी समानांतर ध्रुवीकरण के भय से इस वर्ग की विकल्पहीनता को हथियार बनाया है।
भाजपा नीत सत्तारूढ़ एनडीए गठबंधन में इस बिरादरी को महज तीन टिकट मिले हैं। बीते चुनाव में सात सीटों पर मुस्लिम उम्मीदवार उतारने वाली भाजपा ने केरल के मल्लपुरम से इकलौते मुस्लिम उम्मीदवार को मौका दिया है। एनडीए की सहयोगी जदयू ने किशनगंज, तो एक अन्य सहयोगी एजीपी ने असम की धुबरी सीट पर इस वर्ग को मौका दिया है।
एनडीए की तरह विपक्षी गठबंधन ने भी इस वर्ग के प्रति उदासीनता बरती है। गठबंधन में शामिल कांग्रेस, सपा, राजद, एनसीपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, शिवसेना (यूटीबी) ने इस समुदाय के महज 31 उम्मीदवार उतारे हैं। बीते चुनाव में 32 सीटों पर इस वर्ग को मौका देने वाली कांग्रेस ने इस बार महज 21 सीटों पर मुसलमानों पर भरोसा जताया है। सपा ने भी सिर्फ चार मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारा है।
बसपा-तृणमूल ने दिखाई दरियादिली
बीते चुनाव में महज 6 मुस्लिम उम्मीदवार उतारने वाली बसपा ने इस बार यूपी में 64 में से 18 टिकट मुस्लिमों को दिए हैं। तृणमूल ने प. बंगाल में पांच उम्मीदवारों को मौका दिया है, जबकि वाम मोर्चा के छह उम्मीदवार मुस्लिम हैं।
महाराष्ट्र में किसी ने नहीं पूछा
- 48 सीटों वाले महाराष्ट्र में दोनों प्रमुख कांग्रेस-एनसीपी-शिवसेना यूबीटी और भाजपा, शिवेसना शिंदे और एनसीपी अजीत गठबंधन की ओर से एक भी मुसलमान उम्मीदवार मैदान में नहीं है।
- बिहार की 40 सीटों में से दोनों गठबंधन को मिला कर महज चार मुसलमान उम्मीदवारों को मौका मिला है।
समानांतर ध्रुवीकरण का सता रहा डर
सत्तारूढ़ एनडीए के इतर विपक्ष की मुसलमानों से बरती दूरी को बीते दो लोकसभा चुनावों में अल्पसंख्यक मुसलमानों के ध्रुवीकरण के जवाब में बहुसंख्यकों के समानांतरण ध्रुवीकरण से जोड़कर देखा जा रहा है। मुसलमानों से जुड़े संगठनों का आरोप है कि विपक्षी दल उसकी बिरादरी की सियासी विकल्पहीनता को हथियार बना रहे हैं।
सभी दलों ने डाले डोरे मगर…
मुसलमानों का वोट हासिल करने के लिए सभी दलों ने डोरे तो बहुत डाले, मगर टिकट वितरण के दौरान इन्हें घास नहीं डाला। मसलन भाजपा ने पसमांदा मुसलमानों को जोड़ने की पहल की। न दूर है न खाई है, मोदी हमारा भाई है, अभियान चलाया, मगर यह प्रेम टिकट वितरण में नहीं दिखा। विपक्षी गठबंधन ने भी इस बिरादरी को साधने के लिए कई वादे किए, मगर टिकट देने से दूरी बनाई।
चिंताजनक है लोकसभा में नेतृत्व
अब तक के 17 आम चुनाव में लोकसभा में मुसलमानों का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व 1980 में रहा। तब इस बिरादरी के 49 सांसद चुने गए थे। 2004 में यह संख्या 34, 2009 में 30, 2014 में 22 और 2019 में 27 रह गई। 2014 के चुनाव में पहली बार यूपी में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व शून्य रहा। इसके बाद मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में मंत्रिमंडल विस्तार के बाद सरकार में भी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व शून्य हो गया।